परमात्मा शब्द दो शब्दों ‘परम’ तथा `आत्मा’ की संधि से बना है। परम का अर्थ सर्वोच्च एवं आत्मा से अभिप्राय है चेतना, जिसे प्राण शक्ति भी कहा जाता है। ईश्वर। आधुनिक हिन्दी में ये शब्द ईश्वर का ही मतलब रखता है ।
इस संबंध में प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन का मत अलग है. प्रोफ़ेसर जैन के अनुसार आत्मा एवं परमात्मा का भेद तात्त्विक नहीं है अपितु भाषिक है. उनके विचारों को उद्धृत किया जा रहा है - " आत्मवादी दार्शनिक आत्मा को अविनाशी मानते हैं। गीता में भी इसी प्रकार की मान्यता का प्रतिपादन हुआ है। आत्मा न कभी उत्पन्न होता है, न कभी मरता है, न कभी उत्पन्न होकर अभाव को प्राप्त होता है। यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है और शरीर का नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता। इस जीवात्मा को अविनाशी, नित्य, अज और अव्यय समझना चाहिए। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके नवीन वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नवीन शरीरों को ग्रहण करता है। इसे न तो शस्त्र काट सकते है, न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न वायु सुखा सकती है। यह अच्छेदय्, अदाह्य एवं अशोष्य होने के कारण नित्य, सर्वगत, स्थिर, अचल एवं सनातन है। इस दृष्टि से किसी को आत्मा का कर्ता स्वीकार नहीं कर सकते। यदि आत्मा अविनाशी है तो उसके निर्माण या उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह सम्भव नहीं कि कोई वस्तु उत्पन्न तो हो किन्तु उसका विनाश न हो। इस कारण जीव ही कर्ता तथा भोक्ता है।
सूत्रकाल में ईश्वरवाद अत्यन्त क्षीण प्रायः था। भाष्यकारों ने ही ईश्वर वाद की स्थापना पर विशेष बल दिया। आत्मा को ही दो भागों में विभाजित कर दिया गया- जीवात्मा एवं परमात्मा।
‘ज्ञानाधिकरणमात्मा । सः द्विविधः जीवात्मा परमात्मा चेति।'1
इस दृष्टि से आत्मा ही केन्द्र बिन्दु है जिस पर आगे चलकर परमात्मा का भव्य प्रासाद निर्मित किया गया।
आत्मा को ही बह्म रूप में स्वीकार करने की विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद् युग में मिलती है। ‘प्रज्ञाने ब्रह्म', ‘अहं ब्रह्मास्मि', ‘तत्वमसि', ‘अयमात्मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्य इसके प्रमाण है। ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप है। यही लक्षण आत्मा का है। ‘मैं ब्रह्म हूँ', ‘तू ब्रह्म ही है; ‘मेरी आत्मा ही ब्रह्म है' आदि वाक्यों में आत्मा एवं ब्रह्म पर्याय रूप में प्रयुक्त हैं।
आत्मा एवं परमात्मा का भेद तात्विक नहीं है; भाषिक है। समुद्र के किनारे खड़े होकर जब हम असीम एवं अथाह जलराशि को निहारते हैं तो हम उसे समुद्र भी कह सकते हैं तथा अनन्त एवं असंख्य जल की बूँदों का समूह भी कह सकते हैं। स्वभाव की दृष्टि से सभी जीव समान हैं। भाषिक दृष्टि से सर्व-जीव-समता की समष्टिगत सत्ता को ‘परमात्मा' वाचक से अभिहित किया जा सकता है।"
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