जय श्री नाथ जी महाराज की जय

शिव गोरख नाथ
जय श्री नाथ जी महाराज
परम पूज्य संत श्री भानीनाथ जी महाराज, चूरु
परम पूज्य संत श्री अमृतनाथ जी महाराज, फ़तेहपुर
परम पूज्य संत श्री नवानाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )
परम पूज्य संत श्री भोलानाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )
परम पूज्य संत श्री रतिनाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )

Saturday, January 2, 2010

संस्‍कार:भारतीय दर्शन

भारतीय दर्शन में संस्‍कार शब्‍द किसी परिचय का मोहताज नही है। भारतीय दर्शन में 16 संस्‍कारों की बात की गई है। संस्‍कारों से तात्‍पर्य व्‍यक्ति के जीवन में अपनाये जाने वाले सद्गुणों से होता है।

आचार्य चरक ‘’चरक संहिता’’ में संस्‍कार की व्‍याख्‍या करते हुऐ कहते है -संस्‍कारो ही गुणन्‍तरराधानतुच्‍यते अर्थात पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटाकर सद्गुणों को धारण करना ही संस्‍कार है। इसी प्रकार शंकराचार्य ने गुणधान या दोषापनयन को संस्‍कार मानते हुये वेदान्‍त सूत्र शंकरभाष्‍य में कहते है कि- संस्‍कारो हि नाम गुणाधानेन वास्‍य दोषायनयनेन वा।

सर्व प्रथम यह प्रश्‍न उठना स्‍वाभाविक हो जाता है कि व्‍यक्ति के अन्‍दर संस्‍कारों का समावेश होता है कैसे है? मानव में संस्‍कारों के निर्माण के दो वर्ग विभाजित है प्रथम है वंशाक्रम तथा द्वितीय है पर्यावरणीय। वंशाक्रम का अध्‍ययन करने पर पता चलता है कि जिस प्रकार पूर्वजों का वीर्य व रजस होगा उसी प्रकार की संतान होगी। निश्चित रूप से आम के पेड़ से आम ही उत्‍पन्‍न होता है इमली नही उसी प्रकार खट्टे आम के पेड़ से सदैव खट्टा आम ही उत्‍पन्‍न होगा। ठीक उसी प्रकार जिस संस्‍कारों के माता-पिता या पूर्वज होते है उसी संस्‍कारों की संताने भी होती है। कभी कभी इसका अपवाद भी उत्‍पनन हो जाता है कि कुछ राक्षसों के यहॉं धर्म मार्ग पर चलने वाली संतानों ने जन्‍म कैसे ले लिया ? प्रश्‍न का उठना भी सार्थक है। राक्षसी गुणों वालों के यहॉं भी संत पैदा हो जाते है। प्रह्लाद की माता के गुण धार्मिक थे इस कारण प्रह्लाद धर्मिक प्रवित्ति के हुऐ। इसकी प्रकार प्रह्लाद के पौत्र भी प्रह्लाद की तरह धर्मिक हुऐ1 आज वैज्ञानिक भी मानते है कि ऊचाई, मोटाई, गोरा या काला होना वंश पर निर्भर करता है कभी कभी देखने में आता है कि गोरे माता-पिता की संतान भी काली उत्‍पन्‍न होती है या संतान का चेहरा मॉ-बाप दोनों से नही मिलता है। कारण है कि इनके पूर्वजों में कभी यह गुण रहे होगें जो आज परिलक्षित हो रहे है। इसी प्रकार यह बात संस्‍कारों पर भी लागू होती है कि पूर्वजों के उत्‍ताधिकारी के रजोवीर्य कसे जन्‍म लेने वाली उनके संस्‍कारों को धारण करती है। सुसंस्‍कारित पूर्वजो की संताने संस्कारवान तथा कुत्‍सित पूर्वजों की संताने कुत्‍सित होती है।

आधुनिक वैज्ञानिकों गाल्‍टन तथा ब्रिजमैन के अनुसार प्राणी जो कुछ भी है वह वंशानुक्रम का परिणाम है, और इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नही किया जा सकता है। इस बात की पुष्टि भर्तहरि नीतिशतक में भी मिलती है- भूयोSपि सिक्‍त: पयसा घृतेन न निम्‍बवृक्षों मधुरत्‍वमेति। अर्थात दूध-घी के निरन्‍तर घोने से भी नीम्‍ब के वृछ में मधुरता नही लाई जा सकती है।

गाल्‍टन तथा ब्रिजमैने के विपरीत डा. नेफाख जैसे पर्यावरणवादी के अनुसार वंशानुगत गुणें को भी पर्यावरण द्वारा बदला जा सकता है इस तर्क के सर्मथन में भर्तृहरि नीतिशतक में एक श्‍लोक है-

सन्‍ताप्‍तायसि संस्थितस्‍य पयसों नामपि न लक्ष्‍यते,

मुक्‍ताकारताया तदेव नलनि पत्रस्थितं राजते।

स्‍वात्‍या सागरशुक्तिसम्‍पुटगतं तज्‍जायते भौक्तिकं,

प्रायेणाधर्ममध्‍यभोक्‍तगुण: संसर्गतो जायते।।

अर्थात जिस प्रकार जल की एक बूँद गर्म आग के गोले पर पड़ कर नष्‍ट हो जाती है, कमल पत्र पर पड़ने पर वह मोती सदृश्‍य प्रतीत होती है और वही बूँद अगर सीपी में पढ जाती है तो वह मोती बन जाती है। चूकिं जल की प्रकृति पीने की है किन्‍तु सद्गुणों के सानिध्‍य से वह संस्‍कारित होती है। जीन्‍स पर शोध कर रहे डाक्‍टर खुराना जो भारतीय मूल के अमेरिकी नोवल पुरस्‍कार विजेता है कहते है कि किसी विशेष गुण वाले जीनस को प्रजनन तत्‍व में से निकाल कर अभीप्सित गुण वाले जीन्‍स के आरोपण द्वारा मन चाहे गुणों वाली संतान प्राप्‍त की जा सकती है वह दिन अब दूर नही जब गांधी, सुभाष, टैगोर तिलक फिर से पैदा किये जायें।

संस्‍कारवादी व्‍यवस्‍था में समन्‍यवादी विचार का दर्शन होता है। समन्‍यवादी से तात्‍पर्य वंशाक्रम या पर्यावरण के बीच द्वंद की समाप्ति से है। समन्‍यवादी विचारधारा में माता-पिता द्वारा प्रदत्‍त वंशानुगतगुणों पर संदेह नही किया जाता फिर भी पर्यावरण के द्वारा नवीन गुणों से पुराने गुणों को परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता हैं। उपरोक्‍त बातों से स्‍पष्‍ट है कि सर्वथा अभिनव मानव का निर्माण तो नही किया जा सकता किन्‍तु मानव का नव निर्माण तो नही किया जा सकता किन्तु मानव का निर्माण जरूर किया जा सकता है।

स्‍वामी रामतीर्थ के शब्‍दों में- समाज कि उन्‍नति बड़े लोगों के छोटे विचारों से न होकर छोटें लोगों बड़े विचारों से है। यही कारण है कि कबीर रैदास आज सर्वत्र पूजे जाते है और भौतिक संसाधनों से परिपूर्ण स्‍वर्ण मायी लंका नष्‍ट हो जाती है। हमारे ऋषियों ने उक्‍त तथ्‍यों को समझा और ‘मानव’ में संस्‍कार पद्धति को जन्‍म दिया और निम्‍न 16 संस्‍कारों की रचना की—

1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. सीमान्‍तोन्‍नयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. निष्‍क्रमण, 7. अन्‍नप्राशन, 8. चूड़ाकर्म, 9. कर्णवेध, 10. उपनयन, 11. वेदारम्‍भ, 12. समावर्तन, 13. विवाह, 14. वानप्रस्‍थ, 15. सन्‍यास, 16. अन्‍येष्ठि या अन्तिम संस्कार।

संस्‍कारों के हमारे जीवन में समावेश के दो पक्ष है प्रहला है सैद्धान्तिक दूसरा व्‍यवहारिक। व्‍यवहारिक पक्ष देशकाल की प्रवृत्तियों के अनुरूप परिवर्तित हो सकता है परन्‍तु सिद्धान्‍त वही रहता है। प्राचीनकाल में संस्‍कारों का समावेश जीवन में वैदिक मंत्रों तथा यज्ञों का आयोजन कर किया जाता था और आज परिवार जनों व इष्‍ठ मित्रों को बुलाकर सामान्‍य पूजा पाठ करके पूरा किया जाता है। निश्चित रूप से भारतीय जीवन दर्शन व मूल्‍यों मे संस्‍कार अभिन्‍न अंग है।

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