जय श्री नाथ जी महाराज की जय

शिव गोरख नाथ
जय श्री नाथ जी महाराज
परम पूज्य संत श्री भानीनाथ जी महाराज, चूरु
परम पूज्य संत श्री अमृतनाथ जी महाराज, फ़तेहपुर
परम पूज्य संत श्री नवानाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )
परम पूज्य संत श्री भोलानाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )
परम पूज्य संत श्री रतिनाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )

Sunday, October 11, 2009

मीरा बाई

कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई का जन्म संवत् १५७३ में जोधपुर में चोकड़ी नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।

आनंद का माहौल तो तब बना, जब मीरा के कहने पर राजा महल में ही कृष्ण मंदिर बनवा देते हैं। महल में भक्ति का ऐसा वातावरण बनता है कि वहां साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता है। मीरा के देवर राणा जी को यह बुरा लगता है। ऊधा जी भी समझाते हैं, लेकिन मीरा दीन-दुनिया भूल कृष्ण में रमती जाती हैं और वैराग्य धारण कर जोगिया बन जाती हैं प्रचलित कथा के अनुसार मीरां वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे साधु होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे। उन्होंने अन्दर से ही कहला भेजा कि हम स्त्रियों से नहीं मिलते, इस पर मीरां बाई का उत्तर बडा मार्मिक था। उन्होने कहा कि वृन्दावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं, यहां आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है। मीरां का ऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले। इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है -

'वृन्दावन आई जीव गुसाई जू सो मिल झिली, तिया मुख देखबे का पन लै छुटायौ


मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। परन्तु कृष्णभक्ति में लीन मीरा पर विष का कोई प्रभाव नही हुआ। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था :-


स्वस्ति

श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।। घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई। साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।। मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई। हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-


जाके प्रिय न राम बैदेही। सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।। नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ। अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।


तुलसी दास जी का इस प्रकार का उत्तर पाकर वह घर का त्याग कर वृंदावन और द्वारका गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।

जब उदयसिह राजा बने तो उन्हे यह जानकर बहुत अफसोस हुआ कि उनके परिवार मे एक महान भक्त के साथ दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होने अपने राज्य के कुछ ब्राह्मनो को मीरा को वापस बुलाने द्वारका भेजा। जब मीरा आने को राजी न हुइ तो ब्राह्मन जिद करने लगे कि वे भी वापस नही जायेन्गे। उस समय द्वारका मे कृष्ण जन्माष्टमी आयोजन की तैयारी चल रही थी। उन्होने कहा कि वे आयोजन मे भाग लेकर चलेगी। उस दिन उत्सव चल रहा था। भक्त गण भजन मे मग्न थे। मीरा नाचते-नाचते श्री रनछोर राय जी के मन्दिर के गर्भ ग्रह मे प्रवेश कर गई और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहा नही थी, उनका चीर मूर्ति के चारो ओर लिपट गया था। और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति मे ही समा गयी थी। मीरा का शरीर भी कही नही मिला। मीरा का उनके प्रियतम प्यारे से मिलन हो गया था।


मीराबाई की रचनाएँ :-

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