जय श्री नाथ जी महाराज की जय

शिव गोरख नाथ
जय श्री नाथ जी महाराज
परम पूज्य संत श्री भानीनाथ जी महाराज, चूरु
परम पूज्य संत श्री अमृतनाथ जी महाराज, फ़तेहपुर
परम पूज्य संत श्री नवानाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )
परम पूज्य संत श्री भोलानाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )
परम पूज्य संत श्री रतिनाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )

Thursday, October 15, 2009

भक्त

भक्त
चार भांति के भक्त जन होते हैं जग मांहि । ज्ञानेच्छुक, ज्ञानी, दुखी और स्वार्थ लपटाहिं ॥
संसार में चार प्रकार के भक्त होते हैं, स्वार्थी, दुखी, ज्ञान के इच्छुक और ज्ञानी ।

(1) दुखी भक्त
इन्द्र का अग्नि का वेग बढ़े टुक धैर्य नहीं चिल्लावत है । धन हीनरु रोग से होय दुखी, तन क्षीण सदा कलपावत हैं ॥
राजा का कोप समाज अनादर, पाय के जो घबरावत है । ऐसे काल में अमृत कहें, वे ही लोक में आर्त कहावत हैं ॥

इन्द्र का कोप हुआ, अत्यन्त वर्षा से घबड़ा गये, चारों ओर प्रचण्ड अग्नि व्यापत हो रही है, निर्धनता के दुख से दुखी हैं, रोग के मारे कराह रहा हैं और शरीर जीर्ण हो गया है, इससे व्याकुल होकर त्राहि त्राहि कर रहे हैं, राजा अप्रसन्न हो गया है, जाति वाले रुष्ट हो गये है। श्री अमृतनाथजी कहते हैं कि इस प्रकार के समय में घबड़ा कर, दुखी होकर जो मनुष्य भक्ति करते है, उन्हें संसार में आर्त अर्थात् दुखी भक्त कहते हैं ।

(2) स्वार्थी भक्त
पुत्र, कलत्र, महत्व के हेतु भजे अरु भोग को भागन जावे । भक्ति करे अरु मान चहे, बल बुद्धि मिले सुख सम्पत्ति पावे ॥
इष्ट मिले अरु अनिष्ट दुरे, सब सृष्टि प्रभाव में आपके आवे । भक्ति में भाव रहे जिनके अस, स्वार्थी वही ऐसे अमृत गावे ॥

स्त्री, पुत्र, यश, बल, बुद्धि, सुख सम्पत्ति और बड़ाई प्राप्त होने की इच्छा से जो भक्ति करते हैं, प्रिय पदार्थ प्राप्त हो और अप्रिय दूर रहे सारे संसार पर अपना प्रभाव पड़े, सब हमारी पूजा करें। श्री अमृतनाथजी कहते हैं कि भक्ति करते समय जिन मनुष्यों के हृदय में ऐसे भाव- इच्छा रहते हैं उनको स्वार्थी कहते हैं ।

(3) ज्ञानेच्छुक जिज्ञासुभक्त
ज्ञान पिपासा लगी है जिन्हें, मैं हूँ कौन यह भाव उठे चितमांहि । जीवरु ब्रह्म में भेद कितना, त्याग माया प्रंपच यह ध्यान सदा ही ॥
सत्य असत्य रहस्य मिले ऐसी युक्ति की चाह को चित्त धराही । इस हेतु से अमृत भक्ति करे, जाको कहत जिज्ञासु है सन्त सराही ॥

जिनके चित्त में ऐसी ज्ञान रुपी जल की तृषा उठी है कि मैं कौन हूँ, जीव और ब्रह्म में कितना भेद है, माया के प्रपंच से दूर हट जाऊँ, मुझे असत्य और सत्य का भेद मिल जाय । श्री अमृतनाथजी कहते हैं कि जो मनुष्य इस प्रकार की इच्छा से भक्ति करता है, उसे ज्ञानेच्छुक-जिज्ञासु भक्त कहते हैं ।

(4) ज्ञानी भक्त
शत्रु में, मित्र में, भ्रष्ट, पवित्र में, एक चरित्र अभेद वही है । रावरु रकं में शंक निशंक में, दूर में अंक में भेद नही हैं ॥
ज्ञान, अज्ञान में, मान, अमान में, स्थान, कुस्थान में खेम नहीं हैं । रुप अरुप का भेद लखे सोही ज्ञानी है 'अमृत' वेद कही है ।

जिस मनुष्य को शत्रु मित्र उत्तम, अधम के साथ एकसा व्यवहार करने में संकोच नही। राजा और कंगाल, भयभीत और निर्भय, दूर और पास में किसी प्रकार का भेद न दिखाई दे। ज्ञान अज्ञान , मान अपमान, अच्छा स्थान और बुरा स्थान जिसे दुखित न करे। श्री अमृतनाथजी कहते हैं भक्ति करते करते जिससे अनुपम रुप का भेद लिख लिया है, वही ज्ञानी भक्त है। वेद भी ऐसा ही कहते हैं ।

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