जय श्री नाथ जी महाराज की जय

शिव गोरख नाथ
जय श्री नाथ जी महाराज
परम पूज्य संत श्री भानीनाथ जी महाराज, चूरु
परम पूज्य संत श्री अमृतनाथ जी महाराज, फ़तेहपुर
परम पूज्य संत श्री नवानाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )
परम पूज्य संत श्री भोलानाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )
परम पूज्य संत श्री रतिनाथ जी महाराज, बऊधाम(लक्ष्मनगढ़-शेखावाटी )

Thursday, October 15, 2009

समाधिः

समाधिः
अष्टम अंग समाधि है, सुन साधक धर ध्यान। चित्त बुद्धि स्थिर हो तभी, है समाधि यों जान॥
भक्ति योग अरू ज्ञान समाधि तीन भाँति की होती है। स्पष्ट तुम्हे बतलाता हूँ लागे तब भव-मल धोती है॥
यम नियम आदि का पालन कर, गुरु चरणन में चित्त को लावे। तब भक्ति समाधि लगे निश्चय, अरू भक्तन की गति को पावे॥
आसन प्राणायाम अरू, प्रत्याहार धारणा ध्यान लगा। कर चेतन मार्ग सुषुम्ना का, है चढ़े ऊर्ध्व कुण्डली जगा॥
निश-दिन जप अजपा गायत्री, अनहद की ध्वनि में लीन भये। हैं अष्ट सिद्धियां मिल जाती, त्यागे तो जीवन मुक्ति लहे॥
यह 'योग समाधि' कहाती है, गुरु दया होय तब मिलती है। लवलीन वृत्ति हो जाय आप में, कर्म ग्रन्थि तब खुलती है॥
चहुँ ओर आपका रूप लखे, तब द्वन्द्व जगत का मिट जावे। शून्य माहिं संकल्प समा जावे, अरू 'मैं-तू' हट जावे॥
कर्ता कर्म न क्रिया रहे, सूषुम्ना में तब आनन्द लहे। तीन अवस्था मिट जावें, केवल तुरिया का भाव रहे॥
निर्वाण प्राप्ति इसको कहते, मन वाणी की गम नहीं जहाँ। अमृत ही अमृत शेष रहे, है 'ज्ञान समाधि' लगे तहाँ॥

अर्थः- श्री अमृतनाथ कहते है कि योग का आठवां अंग समाधि है। हे साधक गण! ध्यान देकर सुनो। साधन करते-करते जब चित्त और बुद्धि में समता आ जाय, वृत्तियों का पूर्णतः निरोध हो जाय, उस अवस्था का नाम समाधि है। महात्माओं के बताये हुए समस्त साधन चित्त-वृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाने के अर्थ है और् समाधि उनमें अन्तिम साधन है। कुछ लोगों का विश्वास है कि समाधि श्वास रोक कर दीर्घ काल तक बैठे रहने को कहते है। इनकी यह धारणा मिथ्या है और यदि किसी ग्रन्थ में ऐसा लिखा है तो भी मेरे अनुभव से वह उचित नही है।

श्वास रोक कर बैठने के भय के मारे ही वर्तमान काल मे समाधि लगाने को साधारण जन समाज कठिन है,या असम्भव समझ रहा है। परन्तु बात ऐसी नही है, यद्यपि समाधिस्थ होना कोई साधारण बात नही है। यह तो श्वास रोकने से भी कठीन है,परन्तु नियमित क्रियाओं का अभ्यास लग्नपूर्वक करते रहने से समाधि लगती है। परन्तु इच्छा हो तब लगे साधारण पूजा, पाठ, हवन, संध्या, प्रार्थनादि जो नैतिक कर्म है इन्हे करने वाले मनुष्य यह समझ बैठते है कि हम भजन करते है और वह भी एकान्त में नियमपूर्वक प्रेम से नही करते है। तभी जन्म से मृत्यु तक इसी घेरे मे फंसे रहते है। जन्म मरण रुपी जो घोर कष्ट है, इसे दूर करने की चिन्ता मनुष्यों में उत्पन्न नही होती। उद्धार के जो कष्ट साध्य साधन है, उन्हे नही करते सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये तो चाहे जैसे घोर कष्ट उठाने को तत्पर रहते हैं। समाधिस्थ होने के लिये चित्त में दृढ़ लग्न, अनुभवी गुरु की अनुकम्पा, एकान्त निवास, पूर्ण ब्रह्मचर्य कष्ट सहिष्णुता और इन्द्रिया रसों का त्याग आवश्यक है। समाधि तीन प्रकार की होती हैः- यथा भक्ति समाधि, योग समाधि और ज्ञान समाधि। हम इनका पृथक-पृथक वर्णन करते है। समाधि पूर्णतः अन्तरंग विषय है।

भक्ति समाधिः-
यम नियम का भली भाँती पालन करते हुए भक्ति पूर्वक ईश्वर का ध्यान करता रहे। इस भक्ति के बलवान होने पर चित्त में शांति आती है वृत्तियाँ अन्तर्मुखी बनती है और भक्त पद को प्राप्त कर सुखी हो जाता है।

भक्ति समाधि लगे तब ही, जब ध्यान सदा हरि माहिं लगावे। इन्द्रिन का रस त्याग करे, तब बुद्धि पवित्र हो भक्ति जगावे॥
मौन रहे न विवाद करे, अरू सुरति समेट के आप में लावे। 'अमृत' रूप लखे अपना, भ्रम रहे नहीं भय दूर हटावे॥

अर्थः- श्री अमृतनाथ कहते है कि इन्द्रियों के स्वाद का त्याग करो। इस से बुद्धि में पवित्रता आवेगी और भक्ति का भाव उत्पन्न होगा। ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते हुए उनका ध्यान करे मौन व्रत धारण करे, बिना आवश्यक कार्य के किसी से बात न करे, विवाद से दूर रहे, स्मरण शक्ति को उकाग्र करे और अपने रुप मे अवस्थित होने का दृढ़ संकल्प करले। इस प्रकार चिर काल तक अभ्यास करने से भ्रमती हुई सुरति एकाग्र होती है। संसारिक सुख दुख का भय दूर हो जाता है, भ्रम मिट जाता है और शान्ति प्राप्त होती है। इसी को भक्ति समाधि कहते हैं कि सब प्रकार से अपने को ईश्वर के समर्पण कर दिया जाय।
आसन, प्राणायाम्, प्रत्याहार, ध्यान और धारणा के साधन से सुषुम्ना मार्ग को चैतन्य कर कुण्डली शक्ति को जागृति करके अजपा गायत्री (सोहं) का जप करता हुआ जो योगी अनहद की ध्वनि में लीन हो जाता है उसे अष्ट सिद्धियां प्राप्त होती है। यदि इनके प्रलोभन और आकर्षण से बच कर रहता है, इनमे अपनी वृत्तियाँ नही लगने देता है, तो उसे आत्म साक्षात्कार हो जाता है। वह अपने रुप को पहचान लेता है।

योग समाधिः-
आसन युक्ति से योग समाधि, लगाय के ध्यान में लीन रहे। मूल की वायु मिलाय के नाभि में, बंक की राह प्रवीण गहे॥

नयन को नासिका लाय के अमृत, नादरू बिन्दु का भेद लहे। बज्र कपाट खुले तब 'शंकर', पाँच पचीस न तीन रहे॥

अर्थः- युक्त (उचित) आसन लगा कर मूल वायु अर्थात अपान वायु को प्राण वायु में मिलावे। इस श्वास शक्ति को चतुर मनुष्य बंक नाल के द्वारा शून्य शिखर में ले जाय अर्थात् श्वास की गति में तन्मयता प्राप्त करे। नेत्रों को नासिकाग्र भाग पर स्थिर करे। इसमें नाद अर्थात् शब्द (सोहं) और बिन्दु अर्थात् शिखर लोक से झरने वाले अमृत का भेद जान लेता है। शून्य शिखर स्थित गुरु स्थान (भ्रमर गुफा) के वज्र के समान कपाट (किवाड़) लगे हुए हैं, वह खुल जाते हैं। पाँचों तत्वों की प्रकृति और तीन गुणों का उस पर प्रभाव नही पड़ता, इन सबके आघात को सहन करने की उसमें शक्ति उत्पन्न हो जाती है। यही योग समाधि है।

ज्ञान समाधि :-

चहुँ दिशी अर्थात सर्वत्र ही आत्मरुप अपना ही रुप दिखे। समस्त संकल्प शुन्य में अर्थात् अपने आप में लीन हो जाय. "मैं तूं" का झंझट दूर हो जाय। इस अवस्था के प्राप्त होने पर कर्त्ता, कर्म और क्रिया का अभाव हो जाता है, सुषुम्ना मार्ग में निष्कण्टक रमण करता है, प्राणों का वाह्य व्यापार बन्द हो जाता है मन की गति थक जाती है। तीन अवस्था मिट जाती है। केवल तुर्य भाव रहता है। इस अवस्था का नाम निर्वाण अवस्था है। श्री अमृतनाथजी कहते हैं को इस अवस्था में केवल अमृत अमृत ही शेष रहता है। इसी अवस्था का नाम ज्ञान समाधि है।

ज्ञान समाधि या सहज समाधि लगे तब योग रु ध्यान नहीं। आप में आप नहीं कुछ अन्य है, द्वन्द हो कैसे न स्थान कहीं॥
एक न दोय है शून्य महा नहीं स्वर्ग पताल न जान मही। कर्म क्रिया कर्त्ताहु नहीं ऐसा "अमृत नाथ" का ज्ञान सही॥


अर्थः- योग की परिपक्व अवस्था का नाम ज्ञान है। किसी-किसी मनुष्य को प्राचीन कर्मों के बल बिना योग भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है। जब ज्ञान समाधि लग जाती है, तब भक्ति और योग समाधि नही रहती। यह दोनों ज्ञान के रुप में बदल जाती है। ज्ञान समाधि लग जाने पर केवल आप ही आप रह जाता है, दूसरा कुछ भी नही रहता (वास्तव में दूसरा कुछ है ही नहीं। यह तो केवल स्वार्थ-मय भ्रम-रुप जगत दिखाई देता है) तब द्वन्द कहाँ रहा। इस अवस्था में संख्या समाप्त हो जाती है। स्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक की मिथ्या धारणा नष्ट हो जाती है। कर्त्ता, कर्म और क्रिया का अत्यन्त भाव हो जाता है। श्री अमृतनाथजी कहते है कि यह मेरा ज्ञान नित्य और सत्य है। इसी का नाम ज्ञान समाधि है या सहज समाधि है। जब तक वृत्ति में यह भाव रहि कि मैं और जगत् पृथक-पृथक हैं, तब तक की अवस्था का नाम सविकल्प समाधि और जब यह भाव लुप्त हो जाय, इसका अत्यन्ताभाव हो जाय उस अवस्था का नाम निर्विकल्प समाधि है।

No comments: